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Friday, 31 August 2018

दशरथ मांझी जीवनी - Biography of Dashrath Manjhi





दशरथ माँझी

दोस्तों इंसान पृथ्वी पर एक मात्र ऐसा प्राणी है जो अगर ठान ले तो उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। हमारे देश में अनेकों ऐसे विद्वान और महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत बड़े-बड़े कार्य किये हैं। जो कार्य उन्होंने अपने मन में ठान लिया उसे कर के ही दम लिया है, भले ही उस कार्य को करने में कितनी ही कठिनाइयाँ और मुसीबतें क्यों आयी हों। ऐसे ही एक महान व्यक्ति थे दशरथ मांझी! जिन्होंने सिर्फ छेनी और हथौड़ी के सहारे विशाल पहाड़ का सीना चीरकर अकेले दम पर रास्ता बना दिया था।

पृष्ठभूमि

दशरथ मांझी का जन्म 17 अगस्त 1934 को बिहार के गया जिले के एक बहुत ही पिछड़े गांव गहलौर में हुआ था। पेशे से मजदूर दशरथ मांझी का गांव गहलौर एक ऐसी जगह है जहाँ पानी के लिए भी लोगों को तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। वहीँ अपने परिवार के साथ एक छोटे से झोपड़े में रहने वाले Dasrath Manjhi भी किसी तरह से अपना गुजर-बसर करते थे। एक बार दशरथ मांझी जी की पत्नी पहाड़ को पार करके पानी लेने गई, वो पानी लेकर वापस रही थी कि उनका पैर पहाड़ से फिसल गया और वह गिर पड़ी। जिससे उनको बहुत चोटें आई। लोग उन्हें घर लेकर गए और घर जाकर उन्होंने सारी दास्ताँ दशरथ मांझी को सुनाई।

इस घटना माँझी के ह्रदय को झकझोर कर रख दिया और उसी समय उन्होंने मन में ठान लिया की पहाड़ को तोड़कर रास्ता बनाकर रहेंगे। और उन्होंने गहलौर पहाड़ को अकेले दम पर चीर कर 360 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा रास्ता बना दिया। इसकी वजह से गया जिले के अत्री और वजीरगंज ब्लाक के बीच कि दूरी 80 किलोमीटर से घट कर मात्र 3 किलोमीटर रह गयी। ज़ाहिर है इससे उनके गांव वालों को काफी सहूलियत हो गयी।

Dasrath Manjhi एक दृढ़संकल्प के व्यक्ति थे जिन्होने अकेले ही पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया। और इस पहाड़ जैसे काम को करने के लिए उन्होंने किसी मशीन या Dynamite का इस्तेमाल नहीं किया, उन्होंने तो सिर्फ अपनी छेनी-हथौड़ी से ही ये कारनामा कर दिखाया। इस काम को करने के लिए उन्होंने ना जाने कितनी ही दिक्कतों का सामना किया, कभी लोग उन्हें पागल कहते तो कभी सनकी, यहाँ तक कि घर वालों ने भी शुरू में उनका काफी विरोध किया पर अपनी धुन के पक्के Dasrath Manjhi ने किसी की सुनी और एक बार जो छेनी-हथौड़ी उठाई तो बाईस साल बाद ही उसे छोड़ा.जी हाँ सन 1960 जब वो 25 साल के भी नहीं थे, तब से हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे।

रात-दिन,आंधी-पानी की चिंता किये बिना Dashrath Manjhi नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे। अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। 
22 साल (1960-1982) के अथक परिश्रम के बाद ही उनका यह कार्य पूर्ण हुआ पर उन्हें हमेशा यह अफ़सोस रहा कि जिस पत्नी कि परेशानियों को देखकर उनके मन में यह काम करने का जज्बा आया अब वही उनके बनाये इस रस्ते पर चलने के लिए जीवित नहीं थी। उनकी पत्नी फागुनी देवी वो उस दिन को देखने के लिए जिंदा नहीं रही जब वो सपना पूरा हुआ। रास्ता बन कर तैयार होने से लगभग दो साल पहले वो बीमार हुई और सारा दिन लग गया उन्हें अस्पताल पहुंचाने में, और रास्ते में ही उनकी मौत हो गयी।

दशरथ मांझी जी के इस कारनामे के बाद दुनिया उन्हें The Mountain Man के नाम से भी जानने लगी। वैसे पहले भी रेल पटरी के सहारे गया से पैदल दिल्ली यात्रा कर जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने का अद्भुत कार्य भी दशरथ मांझी ने किया था। पर पहाड़ चीरने के आश्चर्यजनक काम के बाद इन कामों का क्या महत्व रह जाता है?


निधन

पहाड़ से लड़ने वाले माँझी जी कैंसर की बीमारी से बहुत दिनों तक लड़ते रहे लेकिन अंत में बीमारी उन पर हाबी हो गई। 18 अगस्त 2007 को श्री दशरथ मांझी का देहांत हो गया। इनका अंतिम संस्कार बिहार सरकार द्वारा राजकीय सम्मान के साथ किया गया। भले ही वो आज हमारे बीच हों पर उनका यह अद्भुत कार्य आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा।

अगर इंसान चाहे तो सच-मुच पहाड़ हिला सकता है। वह कोई भी बड़ा से बड़ा असंभव दिखने वाला काम कर सकता है। सफलता पाने के लिए ज़रूरी है की हम अपने प्रयास में निरंतर जुटे रहे। बहुत से लोग कभी इस बात को नहीं जान पाते हैं कि जब उन्होंने अपने प्रयास छोड़े तो वह सफलता के कितने करीब थे। सफल होने के लिए संयम बहुत ज़रूरी है। जिंदगी के बाईस साल तक कठोर मेहनत करने के बाद फल मिला दशरथ जी को।

सम्मान

मांझी 'माउंटेन मैन' के रूप में विख्यात हैं। उनकी इस उपलब्धि के लिए बिहार सरकार ने सामाजिक सेवा के क्षेत्र में 2006 में पद्म श्री हेतु उनके नाम का प्रस्ताव रखा। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दशरथ मांझी के नाम पर रखा गहलौर से 3 किमी पक्की सड़क का और गहलौर गांव में उनके नाम पर एक अस्पताल के निर्माण का प्रस्ताव रखा है।


कौन कहता है किअकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता”…फोड़ सकता है।

निश्छल मन से समाज के लिए काम करने वाले कर्मयोगी अवश्य सफल होते हैं और ऐसे व्यक्ति ही इश्वर के सबसे करीब होते हैं।



...अपने बुलंद हौसलों और खुद को जो कुछ आता था, उसी के दम पर मैं मेहनत करता रहा. संघर्ष के दिनों में मेरी मां कहा करती थीं कि 12 साल में तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं. उनका यही मंत्र था कि अपनी धुन में लगे रहो. बस, मैंने भी यही मंत्र जीवन में बांध रखा था कि अपना काम करते रहो, चीजें मिलें, न मिलें इसकी परवाह मत करो. हर रात के बाद दिन तो आता ही है |  
                                       दशरथ मांझी का वक्तव्य 
                                     फिल्म: 'मांझी: द माउंटेन मैन में

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